आज से करीब आधी सदी पहले लुधियाने का एक मेकैनिक अपने काम से परेशान
था। नौकरी करते हुए उसने दो बरस से अधिक गुजार दिए थे, लेकिन तब भी वह इतना
पैसा नहीं एकत्र कर पाया था कि वह उस नौकरी को आखिरी सलाम कर सके। उसने
नौकरी शुरू करते वक्त सोचा था कि वह पैसे जमा करेगा और फिर बंबई के लिए
निकल पड़ेगा-क्योंकि वह एक्टर बनना चाहता था।
जब अपनी नौकरी शुरू की उसने तब उसकी तनख्वाह थी सिर्फ एक सौ रूपए। सौ रूपयों से बढ़ते-बढ़ते वह राशि साढ़े चार सौ तक पहुंच गई, लेकिन तब भी वह बंबई नहीं पहुंच पाया। यह जरूर हुआ कि उस नौकरी को ज्वाइन करने के बाद विदेशी साहबों जैसी जिंदगी बिताने की आदत पड़ गई उसकी। परिणाम यह हुआ कि वह अपनी उस आमद को सुरक्षित रखने में किंचित समर्थ नहीं रह पाया और फिर मन ही मन उसकी परेशानियां बढ़ती गई। जब वह अपने कस्बे फगवाड़ा के स्कूल में पढ़ता था तभी से उसे फिल्म देखने की आदत पड़ गई थी।
कॉलेज पहुंचने के बाद तो उसकी इस बीमारी ने और भी जोर पकड़ लिया। बी.ए. करने के पहले उसने कॉलेज की पढ़ाई-लिखाई से भी मुक्ति पा ली, लेकिन तब भी वह बंबई नहीं जा पाया। बंबई जाने के लिए पैसों की जरूरत पड़ा करती है, और उन पैसों को वह अपने घर वालों से मांग नहीं सकते थे। सो उन्होंने एक और नौकरी कर ली-छोटी सी नौकरी - ट्यूबवेल बनाने वाली एक अमरीकी फर्म में।
फगवाड़ा के एक ढाबे में चाय पीते हुए एक दिन वे गंभीरता से सोच रहे थे-क्या मैं सचमुच बंबई कभी नहीं जा सकूंगा? तभी उनकी नजर फिल्मफेयर में नई प्रतिभाओं की प्रतियोगिता की घोषणा पर पड़ी। वह एक फोटो-स्टूडियो में घुसे और वहां अपनी कुछ तस्वीरें खिंचा डालीं। फिर घर पहुंच कर वह अपने पूरे बदन की पैमाइश करने लगे। गोरे रंग का वह नौजवान पांच फुट दस इंच लंबा था। वजन 170 पाउंड और सीना 38 इंच चौड़ा। एक फार्म में इस पूरे विवरण को भर कर अपनी तस्वीरों के साथ उसे फिल्मफेयर के संपादक के नाम पोस्ट कर दिया। काफी दिनों तक वह फिल्मफेयर के जवाब की प्रतीक्षा करते रहे। फिर अचानक एक दिन उन्हें बम्बई बुला लिया गया।
बम्बई में 1958 के जनवरी महीने में नए चेहरों की प्रतियोगिता हुई थी। उस प्रतियोगिता में वे पहले नंबर पर आए। बिमल रॉय और गुरुदत्त सरीखे फिल्मकारों ने उनका स्क्त्रीन टेस्ट लिया था। फिर अखबारों में औपचारिक घोषणा हुई कि नए चेहरों में सबसे अधिक प्रतिभासम्पन्न कलाकार लुधियाने का एक मेकैनिक है, नाम है -धर्मेंद्र्र! लेकिन प्रतियोगिता में अव्वल आने के बावजूद उन्हें तत्काल किसी फिल्म में काम नहीं मिल सका। अपनी फलती-फूलती नौकरी से वह पहले ही इस्तीफा दे चुके थे और अब वह पूरी तरह से बेकार थे। बेकारी के उन दिनों को धर्मेंद्र ने चतुर्दिक अभावों में गुजारे और दुश्चिंताएं उसकी चिरसंगिनी बनती गईं। बंबई का नीरस वातावरण उसे प्रति पल निरुत्साहित करता जा रहा था। उनके चारों ओर निराशा ही निराशा थी, और उन निराशाओं से घिर कर वह पुनः अपने गांव की ओर लौट जाने की तैयारी करने में लग गए। बंबई की फिल्मी दुनिया का असली स्वरूप उन्होंने देख लिया था। लेकिन यहां भी उसकी किस्मत एक बार फिर उसे दगा दे गई।
जिस दिन धर्मेंद्र घर लौटने के लिए बिस्तर बांध रहे थे उसी दिन टी.एम.बिहारी नामक एक फिल्म निर्माता ने उन्हें बुला भेजा। बिहारी की फिल्मों के निर्देशक हिंगोरानी से कुछ अरसे पहले धर्मेंद्र की मुलाकात हो चुकी थी। धर्मेंद्र बिहारी के दफ्तर में, अपने अनुमान से, जब उन्हें आखिरी सलाम करने के लिए पहुंचे, तो उन्होंने बड़े प्यार के साथ उन्हें बैठाया और फिर बोले, ‘शायद तुम नहीं जानते तुम्हारे लिए मैंने क्या कुछ सोच रक्खा है?’
उनकी फिल्म दिल भी तेरा हम भी तेरे में उन्हें हीरो का रोल अदा करना था। फिर वे चित्र के मुहूर्त और उसकी शूटिंग की प्रतीक्षा करने लगे, लेकिन बदकिस्मती एक बार फिर उनके साथ बड़ी ईमानदारी के साथ पेश आई। अगली-पिछली चिंताओं और अभावों की छत्रछाया ने उन्हें इस कदर सताना शुरू कर दिया कि वे बीमार पड़ गए। यह बीमारी बड़े लंबे समय तक चली थी। उस बीमारी से अन्ततः जब उन्हें मुक्ति मिली तब उनके शरीर में हड्डियों के ढांचे के अलावा कुछ नहीं बच पाया था। अपनी उस दयनीय अवस्था के बावजूद वह हतोत्साहित तो नहीं हुए, लेकिन अपने उस रूप को कैमरे के सामने खड़ा करने में उन्हें जो मानसिक परेशानी झेलनी पड़ी, उसका लेखा-जोखा आज के दिन हम-आप नहीं लगा सकते।
दिल भी तेरा हम भी तेरे परदे पर जिस तेजी के साथ आई थी, उतनी ही तेजी के साथ वह वहां से उतर भी गई, लेकिन धर्मेंद्र के रूप में जो सितारा उसने फिल्मी आकाश पर उतारा था, उसकी आभा कभी मद्धिम नहीं हो पाई। फिर तो उसकी फिल्मों का जो सिलसिला शुरू हुआ वह सिर्फ चला ही नहीं, अपनी पूरी आनबान के साथ दौड़ता गया। रमेश सहगल की शोला और शबनम, शोभना समर्थ की सूरत और सीरत और बिमल रॉय की बंदिनी ऐसी ही फिल्में थीं, जिन्होंने उसकी प्रारंभिक मेहनत में चार चांद लगा दिए थे।
लेकिन अपनी इस अप्रतिम सफलता के बावजूद धर्मेन्द्र स्टार का स्वांग करने से अपने को हमेशा बचाते रहे। जब मेरे जैसे किसी शुभचिंतक ने उनकी इन उपलब्धियों पर बधाई देते हुए यह आशा प्रकट की थी कि अब उन्हें नंबर एक तक पहुंचने में कोई बाधा नहीं पड़ सकती, तो बड़ी आज़िजी के साथ उन्होंने जवाब दिया था - नहीं भाईजी! मुझे एक नंबर पीछे रह कर ही खुशी होगी। अगर पहले नंबर पर पहुंच गया तो आगे दौड़ने का सवाल ही कहां बचा रहेगा? मुझे दौड़ने का शौक है, आराम से बैठने का नहीं। ऐसे शांत चित्त थे धर्मेंद्र, जो बाद में धरम-गरम के नाम से भी प्रसिद्ध हुए।
जब अपनी नौकरी शुरू की उसने तब उसकी तनख्वाह थी सिर्फ एक सौ रूपए। सौ रूपयों से बढ़ते-बढ़ते वह राशि साढ़े चार सौ तक पहुंच गई, लेकिन तब भी वह बंबई नहीं पहुंच पाया। यह जरूर हुआ कि उस नौकरी को ज्वाइन करने के बाद विदेशी साहबों जैसी जिंदगी बिताने की आदत पड़ गई उसकी। परिणाम यह हुआ कि वह अपनी उस आमद को सुरक्षित रखने में किंचित समर्थ नहीं रह पाया और फिर मन ही मन उसकी परेशानियां बढ़ती गई। जब वह अपने कस्बे फगवाड़ा के स्कूल में पढ़ता था तभी से उसे फिल्म देखने की आदत पड़ गई थी।
कॉलेज पहुंचने के बाद तो उसकी इस बीमारी ने और भी जोर पकड़ लिया। बी.ए. करने के पहले उसने कॉलेज की पढ़ाई-लिखाई से भी मुक्ति पा ली, लेकिन तब भी वह बंबई नहीं जा पाया। बंबई जाने के लिए पैसों की जरूरत पड़ा करती है, और उन पैसों को वह अपने घर वालों से मांग नहीं सकते थे। सो उन्होंने एक और नौकरी कर ली-छोटी सी नौकरी - ट्यूबवेल बनाने वाली एक अमरीकी फर्म में।
फगवाड़ा के एक ढाबे में चाय पीते हुए एक दिन वे गंभीरता से सोच रहे थे-क्या मैं सचमुच बंबई कभी नहीं जा सकूंगा? तभी उनकी नजर फिल्मफेयर में नई प्रतिभाओं की प्रतियोगिता की घोषणा पर पड़ी। वह एक फोटो-स्टूडियो में घुसे और वहां अपनी कुछ तस्वीरें खिंचा डालीं। फिर घर पहुंच कर वह अपने पूरे बदन की पैमाइश करने लगे। गोरे रंग का वह नौजवान पांच फुट दस इंच लंबा था। वजन 170 पाउंड और सीना 38 इंच चौड़ा। एक फार्म में इस पूरे विवरण को भर कर अपनी तस्वीरों के साथ उसे फिल्मफेयर के संपादक के नाम पोस्ट कर दिया। काफी दिनों तक वह फिल्मफेयर के जवाब की प्रतीक्षा करते रहे। फिर अचानक एक दिन उन्हें बम्बई बुला लिया गया।
बम्बई में 1958 के जनवरी महीने में नए चेहरों की प्रतियोगिता हुई थी। उस प्रतियोगिता में वे पहले नंबर पर आए। बिमल रॉय और गुरुदत्त सरीखे फिल्मकारों ने उनका स्क्त्रीन टेस्ट लिया था। फिर अखबारों में औपचारिक घोषणा हुई कि नए चेहरों में सबसे अधिक प्रतिभासम्पन्न कलाकार लुधियाने का एक मेकैनिक है, नाम है -धर्मेंद्र्र! लेकिन प्रतियोगिता में अव्वल आने के बावजूद उन्हें तत्काल किसी फिल्म में काम नहीं मिल सका। अपनी फलती-फूलती नौकरी से वह पहले ही इस्तीफा दे चुके थे और अब वह पूरी तरह से बेकार थे। बेकारी के उन दिनों को धर्मेंद्र ने चतुर्दिक अभावों में गुजारे और दुश्चिंताएं उसकी चिरसंगिनी बनती गईं। बंबई का नीरस वातावरण उसे प्रति पल निरुत्साहित करता जा रहा था। उनके चारों ओर निराशा ही निराशा थी, और उन निराशाओं से घिर कर वह पुनः अपने गांव की ओर लौट जाने की तैयारी करने में लग गए। बंबई की फिल्मी दुनिया का असली स्वरूप उन्होंने देख लिया था। लेकिन यहां भी उसकी किस्मत एक बार फिर उसे दगा दे गई।
जिस दिन धर्मेंद्र घर लौटने के लिए बिस्तर बांध रहे थे उसी दिन टी.एम.बिहारी नामक एक फिल्म निर्माता ने उन्हें बुला भेजा। बिहारी की फिल्मों के निर्देशक हिंगोरानी से कुछ अरसे पहले धर्मेंद्र की मुलाकात हो चुकी थी। धर्मेंद्र बिहारी के दफ्तर में, अपने अनुमान से, जब उन्हें आखिरी सलाम करने के लिए पहुंचे, तो उन्होंने बड़े प्यार के साथ उन्हें बैठाया और फिर बोले, ‘शायद तुम नहीं जानते तुम्हारे लिए मैंने क्या कुछ सोच रक्खा है?’
उनकी फिल्म दिल भी तेरा हम भी तेरे में उन्हें हीरो का रोल अदा करना था। फिर वे चित्र के मुहूर्त और उसकी शूटिंग की प्रतीक्षा करने लगे, लेकिन बदकिस्मती एक बार फिर उनके साथ बड़ी ईमानदारी के साथ पेश आई। अगली-पिछली चिंताओं और अभावों की छत्रछाया ने उन्हें इस कदर सताना शुरू कर दिया कि वे बीमार पड़ गए। यह बीमारी बड़े लंबे समय तक चली थी। उस बीमारी से अन्ततः जब उन्हें मुक्ति मिली तब उनके शरीर में हड्डियों के ढांचे के अलावा कुछ नहीं बच पाया था। अपनी उस दयनीय अवस्था के बावजूद वह हतोत्साहित तो नहीं हुए, लेकिन अपने उस रूप को कैमरे के सामने खड़ा करने में उन्हें जो मानसिक परेशानी झेलनी पड़ी, उसका लेखा-जोखा आज के दिन हम-आप नहीं लगा सकते।
दिल भी तेरा हम भी तेरे परदे पर जिस तेजी के साथ आई थी, उतनी ही तेजी के साथ वह वहां से उतर भी गई, लेकिन धर्मेंद्र के रूप में जो सितारा उसने फिल्मी आकाश पर उतारा था, उसकी आभा कभी मद्धिम नहीं हो पाई। फिर तो उसकी फिल्मों का जो सिलसिला शुरू हुआ वह सिर्फ चला ही नहीं, अपनी पूरी आनबान के साथ दौड़ता गया। रमेश सहगल की शोला और शबनम, शोभना समर्थ की सूरत और सीरत और बिमल रॉय की बंदिनी ऐसी ही फिल्में थीं, जिन्होंने उसकी प्रारंभिक मेहनत में चार चांद लगा दिए थे।
लेकिन अपनी इस अप्रतिम सफलता के बावजूद धर्मेन्द्र स्टार का स्वांग करने से अपने को हमेशा बचाते रहे। जब मेरे जैसे किसी शुभचिंतक ने उनकी इन उपलब्धियों पर बधाई देते हुए यह आशा प्रकट की थी कि अब उन्हें नंबर एक तक पहुंचने में कोई बाधा नहीं पड़ सकती, तो बड़ी आज़िजी के साथ उन्होंने जवाब दिया था - नहीं भाईजी! मुझे एक नंबर पीछे रह कर ही खुशी होगी। अगर पहले नंबर पर पहुंच गया तो आगे दौड़ने का सवाल ही कहां बचा रहेगा? मुझे दौड़ने का शौक है, आराम से बैठने का नहीं। ऐसे शांत चित्त थे धर्मेंद्र, जो बाद में धरम-गरम के नाम से भी प्रसिद्ध हुए।
0 comments:
Post a Comment